
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान पर जानलेवा हमले के बाद कई तरह की चर्चा पुरजोर है। कोई इसे ‘पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान की बदले की कार्रवाई’ कह रहा है, तो कोई ‘इमरान खान का मास्टर प्लान’…पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान पर जानलेवा हमले के बाद कई तरह की चर्चा पुरजोर है। कोई इसे ‘पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान की बदले की कार्रवाई’ कह रहा है, तो कोई ‘इमरान खान का मास्टर प्लान’। निस्संदेह, ऐसी घटनाओं में जिस इंसान को गोली लगती है, उसके पक्ष में सहानुभूति पैदा होती है और उसे इसका सियासी लाभ मिलता है। मगर क्या इमरान खान को अभी इसकी जरूरत है? गुजरे जुलाई माह में पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब की विधानसभा की 20 सीटों के लिए जब उप-चुनाव हुए थे, तब इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) पार्टी ने एकतरफा 15 सीटों पर जीत हासिल की थी। साफ है, पीटीआई को लोग पसंद करते हैं। ऐसे में, ताजा घटनाक्रम काफी संवेदनशीलता की मांग करता है। सतही कयासबाजी के बजाय हमें वहां की जांच एजेंसियों के नतीजों का इंतजार करना चाहिए।असली सवाल यह है कि पाकिस्तान में आम लोगों के हाथों में आसानी से हथियार कैसे आ गए हैं? यह बहुत कुछ अमेरिका जैसा है, जहां हर किसी के पास बंदूक है और यह भरोसा नहीं कि कौन किस मंशा से गोली चला दे। हालांकि, दोनों देशों में बड़ा अंतर यह है कि अमेरिका बंदूक रखने को वैधानिक स्वीकृति दे चुका है, जबकि पाकिस्तान में इसके लिए लाइसेंस लेना पड़ता है, बिल्कुल हमारे देश की तरह।जहां तक नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविन्स (अब खैबर पख्तूनख्वा) का सवाल है, तो वहां करीब एक दशक (1979-89) तक चले सोवियत-अफगान युद्ध के समय भारी मात्रा मेें असलहा पहुंचे थे। उस गुरिल्ला जंग में एक तरफ अफगानिस्तान के मुजाहिदीन थे, तो दूसरी तरफ तत्कालीन सोवियत संघ (अब रूस) के जवान। तब पाकिस्तानी फौज व उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई के जरिये मुजाहिदीन को भारी मात्रा में हथियार उपलब्ध कराए गए थे, जिनमें विदेश (खासकर अमेरिका) से मिले हथियार भी थे। उस दौर में असलहा बनाने वाली कई अनधिकृत कंपनियां भी फ्रंटियर में खुलीं, जहां से बिना किसी लाइसेंस से हथियार खरीदे जा सकते थे। बाद के वर्षों में इस सबका असर पंजाब सूबे पर भी पड़ा। संभवत: इसी खतरे को भांपकर अमेरिका ने युद्ध-समाप्ति के बाद अपनी स्टिंगर मिसाइलें मुजाहिदीन को भारी कीमत चुकाकर वापस खरीदीं। ऐसा लगता है कि साल 2007 में पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो पर चली गोलियां उसकी आशंका को सच साबित कर गई।यहां यह नहीं कहा जा सकता कि राजनेता इसको शह देते हैं। कोई भी प्रधानमंत्री नहीं चाहेगा कि उसके अवाम के हाथों में बंदूक हो। इससे अराजक स्थिति पैदा होती है। असल में, वहां के नेता यह समझ नहीं पा रहे कि इस समस्या से कैसे पार पाया जाए? हां, कानून लागू करने वाली एजेंसियों को जरूर कठघरे में खड़ा किया जा सकता है, जो शायद उतनी तत्पर नहीं हैं, जितनी तत्परता उनको दिखानी चाहिए।नियमों की बात करें, तो भारत और पाकिस्तान के कानून में शायद ही कोई अंतर है। मुझे याद है, 1988 में जब बतौर प्रधानमंत्री राजीव गांधी पाकिस्तान जाने वाले थे, तब मैं अपनी सेवा वहीं दे रहा था। उस वक्त उसके सूबाई व मुल्क के आला पुलिस अधिकारियों के साथ हमारी नियमित सुरक्षा बैठकें हुआ करती थीं। जब दिल्ली से आने वाले पुलिस अधिकारियों के साथ उनकी मेल-मुलाकात शुरू हुई, तो एकाध बैठकों के बाद ही हमें एहसास हो गया कि दोनों देशों के कानून कमोबेश समान हैं। अंतर सिर्फ यह है कि हमारी ‘रूल्स-बुक’ का जिल्द नीला है और उनका हरा, जिससे वे अपनी नियम-पुस्तिका को ‘ग्रीन बुक’ कहते हैं। पाकिस्तान में ‘बंदूक संस्कृति’ने किस हद तक अपनी पैठ बना ली है, इसका अंदाज इस एक घटना से लग जाता है कि जब करीब एक दशक पहले वहां के एक सेवानिवृत्त अधिकारी भारत आए थे (वह पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी रह चुके थे), तो उन्होंने व्यक्तिगत मुलाकात में एक दिलचस्प वाकये का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि उनके यहां फ्रंटियर का एक युवक काम करता था, जो एक बार छुट्टी लेकर अपने घर गया, मगर काफी दिनों तक वापस नहीं लौटा। उनको चिंता हुई, तो उन्होंने उसकी खोज-खबर लेने का प्रयास किया। संपर्क साधने पर उस युवक ने कहा कि वह पूरी तरह ठीक है, बल्कि वह एक स्थानीय तंजीम (गुट) में शामिल हो गया है, जिसे अब वह नहीं छोड़ना चाहता। जब उस अधिकारी ने उसे इसके खतरे बताए, तब उसने दृढ़ता से कहा, उसे बंदूक दी गई है और जब बंदूक हाथ में होती है, तो इलाके में रुतबा काफी ज्यादा बढ़ जाता है। मेरा मानना है कि इस तरह की सोच अब पूरे पाकिस्तान में विस्तार पा चुकी है।इमरान खान पर गोली चलाने वाले शख्स ने किस वजह से बंदूक उठाई या हमला करने के पीछे उसकी मंशा क्या थी, इसका सही-सही जवाब तो वही दे सकता है। पूछताछ के बाद ही यह पता चल सकेगा, लेकिन वहां ऐसी जांच भी कितनी दूर तक जाती है, उस पर सवाल बना रहता है। मसलन, पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद संयुक्त राष्ट्र के जांच अधिकारी पाकिस्तान बुलाए गए थे, पर नतीजा सिफर रहा। इसी तरह, पूर्व राष्ट्रपति जिया-उल हक के विमान हादसे की जांच भी अंजाम तक नहीं पहुंच सकी। यही वजह है कि मैं इस हमले के महज राजनीतिकरण के कयास लगा सकता हूं। ऐसा हो भी रहा है। इमरान खान ने इसके लिए प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ, गृह मंत्री और सेनाध्यक्ष को जिम्मेदार ठहराया है, जबकि जवाब में इमरान पर ही आरोप उछाले जा रहे हैं। सभी पक्षों को जन-भावना का ख्याल रखना चाहिए और एक-दूसरे के विरोध में इतना आगे नहीं बढ़ जाना चाहिए कि फौज को सत्ता हथियाने का कोई मौका मिल जाए।रही बात भारत की, तो हमें ऐसे मामलों पर टिप्पणी करने में गंभीरता दिखानी होगी। जब तक पाकिस्तान की एजेंसियां ठोस सुबूत न ढूंढ़ लें, हमें किसी तरह के कयास नहीं लगाने चाहिए। जल्दबाजी पाकिस्तान को हम पर उंगली उठाने का मौका दे सकती है।